भगवान बिरसा मुंडा (Birsa munda) ने महज 22 वर्ष की उम्र में अपनी वीरता और संगठन शक्ति के बल पर अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये थे। उनहोंने न सिर्फ अंग्रेज शासकों के अत्याचार के खिलाफ संघर्ष किया बल्कि ईसाई मिशनरियों के धर्मांतरण और जनजातीय समुदाय के खिलाफ भरे जा रहे नकारात्मक प्रभाव का भी विरोध किया। उन्होंने स्थानीय जमींदारों द्वारा आदिवासियों पर किये जा रहे अत्याचार के विरोध में भी बिगुल फूंका। वो जनजातीय समुदाय में पशु हिंसा (बलि) के प्रबल विरोधी थे।
बिरसा मुंडा देश के इकलौते ऐसे स्वतंत्रता सेनानी हैं, जिन्हें लोग धरती आबा यानी धरती का पिता कहते हैं। उन्होंने सामंती व्यवस्था को समाप्त करने के लिए भी हथियार उठाये। जनजातीय समुदाय की जमीन की रक्षा के लिए आज का छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट (सीएनटी एक्ट) भगवान बिरसा मुंडा की देन है। उनकी शहादत के लगभग एक दशक के बाद 1908 में अंग्रेजों ने छोटानागपुर काश्तारी अधिनियम (सीएनटी) कानून को लागू किया था।
भगवान बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर, 1875 को खूंटी जिले के अड़की प्रखंड के उलिहातू गांव में हुआ था। हालांकि, उनके जन्मस्थान को लेकर इतिहासकारों में अब भी मतभेद हैं। रांची के पूर्व उपायुक्त और जाने-माने इतिहासकार डॉ. कुमार सुरेश सिंह, जिन्हें बिरसा मुंडा की वीरता और उनके योगदान को दुनिया के सामने लाने का श्रेय जाता है, का मानना है कि बिरसा मुंडा का जन्म उलिहातू में हुआ था। कुछ इतिहासकार उनका जन्मस्थान चलकद को मानते हैं। सरकार और प्रशासन ने भी उलिहातू को ही भगवान की जन्मस्थली माना है। बिरसा मुंडा का बचपन आम आदिवासी बच्चे की तरह गांव की धूल-मिट्टी में खेलते हुए अपने माता-पिता के साथ गुजरा। उनके पिता का नाम सुगना मुंडा और माता का नाम करमी था।
सुगना मुंडा का परिवार बेहद ही गरीब था। एक बेहद मजबूत और सुंदर लड़के के रूप में बड़े होने के बाद उन्होंने जंगलों में भेड़ चराना शुरू किया। उनके जीवन का एक बड़ा हिस्सा गांव के अखाड़ा में बीता। गरीबी से तंग आकर बिरसा मुंडा अपने मामा के घर आयुबहातू चले गए। वहां वे दो साल रहे। उसी दौरान उन्होंने जयपाल नाग द्वारा सलगा गांव में संचालित स्कूल में अपनी प्रारंभिक पढ़ाई शुरू की। बिरसा मुंडा काफी कुशाग्र बुद्धि के थे। इसलिए जयपाल नाग ने जर्मन मिशन के स्कूल में दाखिला लेने की सलाह दी। वहां नामांकन करने के बाद बिरसा मुंडा का ईसाई मिशनरियों ने धर्म परिवर्तन करा दिया और उनका नाम बिरसा डेविड या बिरसा दाउद रख दिया।
इस बीच अंग्रेजों और ईसाई मिशनरियों द्वारा भारतीयों के साथ किये जा रहे दुर्व्यवहार से बिरसा का मोहभंग हो गया और उन्होंने स्कूल का त्याग कर ईसाई का चोला भी उतार दिया। आदिवासियों को ईसाई धर्म में परिवर्तित करने के अंग्रेजों क इरादों को भांपकर उन्होंने एक नये धर्म की स्थापना की, जो आज भी बिरसाइत के नाम से मुंडा और उरांव जनजाति में प्रचलित है। उन्होंने अंग्रेजों के जुल्म और धर्मांतरण के विरोध में गौरबेड़ा और भंडरा के चर्च में आग लदा दी थी। अंग्रेजी शासकों और उनके समर्थक जमींदारों के शोषण के के खिलाफ उन्होंने सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की। उनके सेनापति थे अमर शहीद गया मुंडा। सन 1900 में बिरसा मुंडा डोम्बारी बुरू(डोंबारी बुरू) में अपने समर्थकों के साथ बैठक कर रहे थे। इसकी भनक हुकूमत को लग गई और और सैनिकों ने उस पहाड़ी को चारों ओर से घेर लिया और अंधाधुंध गोलियों की बौछार कर दी, जिसमें सैकड़ों निर्दाेष ग्रामीण मारे गये। उसी के दौरान बिरसा मुंडा पकड़े गये और उन्हें रांची की जेल जिसे आज बिरसा मुंडा कारागार कहा जाता है, में रखा गया और #09 जून, 1900 को जेल में ही रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मौत हो गई। कहा जाता है अंग्रेजों ने उन्हें धीमा जहर दिया था।
(अनिल मिश्र, खूंटी: लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)