तरुण बजाज।
कराधान विधि संशोधन विधेयक, 2021 करों से जुड़े कानून का एक परिवर्तनकारी पहलू है। यह न सिर्फ दायरे और सामग्री की दृष्टि से परिवर्तनकारी है, बल्कि उस चलन की दृष्टि से भी परिवर्तनकारी है जिसे इसने जन्म दिया है। भारत में करों से जुड़े हितधारक इस बात को लेकर सुरक्षित महसूस कर सकते हैं कि कराधान के मामले में निश्चितता और आसानी से अनुमान लगा सकने का आश्वासन अब महज बहस का मुद्दा बनने से आगे बढ़ चुका है। यह अपना वादा निभाने से जुड़ा मामला है। मुझे इससे पहले का ऐसा कोई उदाहरण याद नहीं आता, जब सरकार ने आयकर अधिनियम में पूर्व में किए गए संशोधन से उत्पन्न कर संबंधी बहुत बड़ी मांग को वापस लेने के लिए इतना साहसिक कदम उठाया गया हो। एक निष्पक्ष और आसानी से अनुमान लगायी जा सकने वाली कर व्यवस्था के प्रति सरकार की वचनबद्धता की इस विधेयक से बड़ी जोरदार घोषणा और कोई हो नहीं सकती थी।
अधिकांश पाठकों को यह याद होगा कि परिसंपत्तियों के अप्रत्यक्ष हस्तांतरण से पैदा होने वाली आय पर कराधान के मुद्दे का एक उतार – चढ़ाव भरा इतिहास रहा है और यह सबसे पहले वोडाफोन मामले में सामने आया जहां आयकर विभाग की बंबई उच्च न्यायालय में जीत हुई लेकिन माननीय सर्वोच्च न्यायालय में हार मिली। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि परिसंपत्तियों के अप्रत्यक्ष हस्तांतरण पर ऐसा कराधान आयकर अधिनियम के तत्कालीन प्रचलित प्रावधानों के तहत उचित नहीं था। इसके बाद मई, 2012 में, इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए आयकर अधिनियम में संशोधन किया गया कि आयकर अधिनियम के तहत इस तरह की आय हमेशा कर योग्य है। इस संशोधन को इस तरह के कराधान को पूर्वव्यापी बनाने पर तत्काल कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा, खासकर उस समय जब सर्वोच्च न्यायालय ने करदाताओं के पक्ष में फैसला सुनाया था।
इस किस्म के पूर्वव्यापी कराधान (रेट्रोस्पेक्टिव टैक्सेशन) के बारे में वर्तमान सरकार की नीति स्पष्ट रही है। इस नीति को तत्कालीन वित्त मंत्री स्वर्गीय श्री अरुण जेटली जी ने स्पष्ट रूप से बयान किया था। उन्होंने 10 जुलाई 2014 को लोकसभा के पटल पर कहा था- कि यह सरकार आमतौर पर पूर्वव्यापी रूप से ऐसा कोई बदलाव नहीं लाएगी, जोकि एक नया बोझ पैदा करे। उसी के अनुरूप 2014 से सरकार ने आयकर अधिनियम में किसी भी ऐसे पूर्वव्यापी संशोधन से परहेज किया है, जिसकी परिकल्पना उस समय नहीं की गई थी जब करदाता द्वारा सही तरीके से लेनदेन किया जा रहा था।
2012 के प्रावधानों के पूर्वव्यापी पहलू के बारे में हस्तक्षेप करने से पहले सरकार यह चाहती थी कि इससे जुड़े विवाद तार्किक तरीके से हल हों। दो प्रमुख मध्यस्थता यानी वोडाफोन और केयर्न मामले में, भारत के खिलाफ क्रमशः सितंबर 2020 और दिसंबर 2020 में प्रतिकूल निर्णय सुनाए गए। एक अर्थ में, ऐसे निर्णयों की घोषणा इस प्रक्रिया की एक तार्किक परिणति थी। इसके अलावा, इन दोनों मामलों में इस तरह के आदेशों के तत्काल प्रभाव से कहीं ज्यादा इन आदेशों ने इस तरह के पूर्वव्यापी कराधान के बारे में निवेशकों के जेहन में प्रतिकूल भावनाओं को मजबूत किया। तभी से, सरकार इस तरह के सभी पुराने विवादों को पीछे छोड़ने और विशेष रूप से इस मुद्दे पर और सामान्य रूप से कर नीति के बारे में निवेशकों के जेहन में बैठी अनिश्चितता की भावना को दूर करने के लिए एक व्यापक समाधान पर काम कर रही है। कारगर रूप से मानसून सत्र इस तरह के समाधान को संसद में मंजूरी के लिए लाने का पहला अवसर था।
अगर हम समाधान की बात करें, तो सरकार शुरू से ही इस बारे में स्पष्ट थी कि ऐसा कोई भी समाधान भारतीय कानून के भीतर होना चाहिए। यह समाधान मध्यस्थता के निर्णयों को मान्यता देने वाला नहीं हो सकता क्योंकि सरकार का यह रुख रहा है कि कर विधायन/विवादों जैसे संप्रभु मामलों को मध्यस्थता के अधीन नहीं किया जा सकता। इस तरह के विवादों को देश के कानूनी ढांचे के भीतर सुलझाना होगा, न कि इसके बाहर। और यह समाधान व्यापक भी होना चाहिए ताकि यह इस किस्म के पूर्वव्यापी कराधान (रेट्रोस्पेक्टिव टैक्सेशन) से जुड़े सभी मामलों पर लागू हो, चाहे कोई विवाद मध्यस्थता या किसी अन्य वजहों से कहीं भी लंबित हो।
कई आलोचकों ने इस संशोधन के समय को लेकर सवाल उठाया है। यह कहा गया है कि इस संशोधन को विभिन्न न्यायिक क्षेत्राधिकारों द्वारा दिए गए निर्णयों को लागू करने के लिए केयर्न द्वारा हाल की कार्रवाइयों की वजह से लाया गया है। इससे ज्यादा सच्चाई से परे और कोई भी बात नहीं हो सकती। इस किस्म की मध्यस्थता और प्रवर्तन की कार्यवाही से अच्छी तरह परिचित हर व्यक्ति यह जानता है कि इस तरह की कार्यवाही के वास्तविक भुगतान, यदि कुछ हो, में बदलने से पहले गंगा नदी में बहुत अधिक पानी बहने यानी बहुत कुछ करने की जरूरत पड़ती है। केयर्न और वोडाफोन मामले में निर्णय को आने में लगभग पांच साल लग गए। अब इन निर्णयों को चुनौती दी गई है और इससे जुड़े अपील कई स्तरों पर लंबित हैं। प्रवर्तन से जुड़ी कार्यवाही भी इसी किस्म की प्रक्रिया से गुजरेगी। इन सब में सालों लग जायेंगे।
इस संशोधन को सरकार की आर्थिक और कर नीति के व्यापक संदर्भ में भी देखने की जरूरत है। खासकर पिछले एक साल से अधिक समय में कोविड-19 के दौरान, सरकार ने आत्मानिर्भर पैकेज के तहत विदेशी निवेश सहित ज्यादा से ज्यादा निवेश आकर्षित करने के लिए कई पहल की हैं। विनिर्माण, बुनियादी ढांचे और वित्तीय क्षेत्रों में परिवर्तनकारी सुधार किए गए हैं। 2021 के बजट, जिसे चौतरफा प्रशंसा मिली, ने आर्थिक विकास को बढ़ावा देने और रोजगार पैदा करने के लिए निवेश को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से कई महत्वपूर्ण कदम उठाए। हम अब उस मोड़ पर हैं, जहां निवेश दूसरी जगहों से भागकर भारत आना चाहता है। यह संशोधन निवेश को आकर्षित करने की सरकार की इस किस्म की समग्र नीतिगत दिशा में पूरी तरह से फिट बैठता है।
इस संशोधन के जरिए सरकार इस आशय का एक व्यापक संदेश दे रही है कि भारत निवेश के लिए एक आकर्षक गंतव्य है। निवेशक इस बात को लेकर सुरक्षित और आश्वस्त महसूस कर सकते हैं कि निवेश का माहौल स्थिर रहेगा और सरकार अपने सभी वादों को पूरा करेगी।
(लेखक: भारत सरकार के वित्त मंत्रालय में राजस्व सचिव हैं।)