चीन के विदेश मंत्री वांग यी के साथ राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और विदेश मंत्री एस जयशंकर की स्पष्ट गुफ्तगू के बाद यह तो पता चलता है कि चीन की मंशा को लेकर भारत सजग है। लेकिन जिस तरीके से यूक्रेन के मामले में चीन अप्रत्यक्ष तौर पर रूस के साथ खड़ा दिखाई दे रहा है, उससे यह इनकार नहीं किया जा सकता कि वह ताइवान के साथ-साथ भारत के लिए भी संकट बन सकता है। चीन ने यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद जिस तरीके से अपने रक्षा बजट में 7.1 प्रतिशत बढ़ोतरी की है, उसके बाद भारत को और अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है।
ध्यातव्य है कि भारत यात्रा पर आए चीन के विदेश मंत्री वांग यी को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और विदेश मंत्री एस जयशंकर ने स्पष्ट कर दिया कि पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा से चीनी सैनिकों की पूर्ण वापसी हो और मई 2020 से पहले जैसी स्थिति बहाल की जाए। उसके पश्चात ही दोनों देशों के रिश्ते सामान्य हो सकते हैं। गलवान घाटी में चीनी सैनिकों की घुसपैठ के बाद विदेश मंत्री जयशंकर और वांग की तीन बार दूसरे देशों (रूस और ताजिकिस्तान) में मुलाकात हो चुकी है। सीमा विवाद को सुलझाने को लेकर सैन्य कमांडरों और विदेश मंत्रालयों के बीच वार्ता हो रही है, हालांकि इसकी रफ्तार काफी धीमी है।
निस्संदेह, चीन भारत का सबसे धोखेबाज पड़ोसी देश रहा है। 5 मई 2020 में गलवान घाटी में दोनों देशों के सैनिकों के बीच जबरदस्त झड़पें हुई थीं और चीन ने वास्तविक नियंत्रण रेखा पर बड़ी संख्या में सैनिकों की तैनाती कर दी थी। यह दोनों देशों के बीच वर्ष 1996 में हुई संधि का उल्लंघन है। यही नहीं, चीन भारत के साथ दोस्ती का नाटक करते हुए भारत पर पहले भी हमला कर चुका है। सीमा विवाद के ही चलते चीन ने वर्ष 1962 में आक्रमण कर दिया था जो दोनों देशों के बीच भीषण युद्ध में तब्दील हो गया था।
हालांकि भारत की विदेश नीति गुटनिरपेक्षता पर आधारित रही है। भारत खुद किसी शक्ति गुट का हिस्सा नहीं रहा है। वह एक स्वतंत्र विदेश नीति को लगातार आगे बढ़ाता रहा है। यह शीत युद्ध से पैदा हुई नीति है। जब भारत आजाद हुआ था, दुनिया खूनखराबे से भरी हुई थी। वैश्विक शक्तियां गुटों में बंटी हुई थीं और संघर्ष को और भड़का रही थीं। कोरियाई युद्ध के दौरान भी भारत और अन्य गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने इसका पक्ष नहीं लिया था।
यही कारण है कि यूक्रेन के मसले पर भारत ने ट्रांस-एटलांटिक सहयोगियों का साथ देने से इनकार कर दिया। भारत का मानना है कि मसले का हल बातचीत के माध्यम से निकाला जाना चाहिए। वस्तुस्थिति यह है कि रूस भारत का आजमाया हुआ पक्का मित्र है। वर्ष 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध में तत्कालीन सोवियत संघ का समर्थन भारत को मिला था, वह भारतीय जनता के दिल-ओ-दिमाग में आज भी कायम है। इसके विपरीत, अमेरिका ने भारत के खिलाफ अड़ियल रुख अपनाया था और भारत को डराने के लिए बंगाल की खाड़ी में अपने सातवें बेड़े को भेज दिया था। यही नहीं, सैन्य साधनों के मामले में भारत के लिए रूस सहयोगी रहा है। उसने इसे एक मजबूत शक्ति बनाया और इन्हीं सैन्य साधनों की मदद से भारत तीन युद्ध जीत चुका है।
निस्संदेह, चीन रूस की ओर से प्रत्यक्ष तौर पर यूक्रेन में लड़ाई नहीं लड़ रहा है लेकिन उसने संघर्ष में काफी हद तक रूस का साथ दिया है और उसने इसे आक्रमण कहने से भी इनकार कर दिया है। वहीं, अमेरिका ने चीन पर झूठी खबरें और गलत सूचना फैलाने में रूस की मदद करने का भी आरोप लगाया है। चीन इस मसले पर बाकी देशों से हटकर बर्ताव कर रहा है। यह भी तय है कि अगर महाशक्तिओं के बीच विश्वयुद्ध छिड़ता है तो चीन रूस के साथ खड़ा होगा।
हालांकि भारत चीन के इस रुख से परेशान नहीं है। लेकिन भारत को चीन के इस स्टैंड को गंभीरता से लेना चाहिए क्योंकि साम्राज्यवादी नीति पर भरोसा करने वाला चीन भारत सहित कई देशों के लिए संकट बन सकता है। चीन के इस स्टैंड से इस बात का डर बढ़ गया है कि वह कभी भी ताइवान और भारत की सीमा पर आक्रमणकारी के तौर पर घुसपैठ कर सकता है। चीन स्वशासित देश ताइवान को अपना अधिकार क्षेत्र मानता है और भारत के अरुणाचल प्रदेश सहित कई सीमाई इलाकों को अपना हिस्सा मानता है।
चीन के पुराने रिकॉर्ड को देखते हुए भारत को इसे और अधिक गंभीरता से लेने की आवश्यकता है। परिवर्तित परिस्थितियों में वैश्विक स्तर पर न केवल चीन के खिलाफ माहौल तैयार करने की आवश्यकता है बल्कि अपनी रक्षा नीति का पुनर्मूल्यांकन करते हुए उसे और अधिक चुस्त-दुरुस्त करने की जरूरत है।