DELHI : आखिरकार हर किसी को छोड़कर तो सब कुछ यहीं जाना है। ऐसे में यदि किसी जरूरतमंद की सहायता कर दी जाए, तो हम वैसे अपराध से बच सकते हैं, जिससे प्रवीण मित्तल और उनके अपने नहीं बच सके। हरियाणा के पंचकूला में प्रवीण मित्तल और उनके परिवार के छह सदस्यों की सामूहिक आत्महत्या ने यह बड़ा सवाल सभ्य समाज के सामने खड़ा किया है। यह पंक्तियां लिखते हुए हाथ कांप रहे हैं और मन बार-बार वहीं लौट जाता है-उस बंद दरवाजे के पीछे, जहां हर उम्र की उम्मीद दम तोड़ चुकी है। उस दृश्य को केवल सामूहिक आत्महत्या कह देना एक आसान है। असल में यह एक सामूहिक सामाजिक विफलता है, जिसमें हम सब-पड़ोसी, रिश्तेदार, संस्थाएं और सरकारें कहीं न कहीं सहभागी हैं।
यह चुप्पियों की चीत्कार का है। जब कोई आत्महत्या करता है, तो वह सिर्फ जीवन नहीं खोता, वह समाज से हार जाता है। वह संकेत देता है कि उसने बहुत पुकारा, बहुत झेला, बहुत सहा… और फिर थककर खामोशी चुन ली। प्रवीण मित्तल और उनका परिवार भी शायद चुप नहीं था, बस उनकी आवाजों को हमने अनसुना कर दिया। करीबी लोग यह भी कह सकते हैं उसने कभी नहीं बताया। यह सही भी हो सकता है। मगर सोचिये, हो सकता है कि शायद इसलिए नहीं बताया कि हर बार जब वह टूटा तो हम सब अपने-अपने मोबाइलों में व्यस्त थे। शायद इसलिए नहीं बताया कि गरीबी, कर्ज, और विफलता को अब भी हम शर्म से जोड़ते हैं, सहानुभूति से नहीं।
कहीं न कहीं हम सब थोड़े-थोड़े दोषी हैं। हर आत्महत्या के पीछे कोई एक कारण नहीं होता, बल्कि एक सामाजिक ढांचा होता है-जिसमें व्यक्ति आर्थिक रूप से टूटता है। भावनात्मक रूप से अकेला पड़ता है और फिर आत्मसम्मान की चादर ओढ़कर चुपचाप चला जाता है। यह घटना भी कुछ वैसी ही है। एक व्यापारी जो कभी आत्मनिर्भर था वह बैंक और साहूकारों के बोझ में दबकर खत्म हो गया। उसके बच्चे, जो दुनिया देखना चाहते थे, अपने भविष्य को ही दफ़न कर बैठे। सवाल यह भी है कि क्या कोई भी पड़ोसी, रिश्तेदार या दोस्त इतना पास नहीं था कि उसकी पीड़ा जान सके?
मौन को भी अपराध समझा जाता है। हम अकसर अपराध को केवल ‘किया हुआ’ समझते हैं-पर सच यह है कि जो समय पर कुछ नहीं करते, वे भी अपराध में सहभागी होते हैं। अगर एक दोस्त, एक भाई, एक ग्राहक, एक पड़ोसी-समय पर एक बात भी कह देता, “चलो, कुछ करते हैं,” तो शायद इन सात लोगों के कीमती जीवन को बचाया जा सकता था। सोचना यह है कि क्या आत्महत्या एक विकल्प है? तो इसका उत्तर है कि नहीं, पर कभी-कभी लगती है। हमारे देश में मानसिक स्वास्थ्य को अब भी कमजोरी माना जाता है। आर्थिक संकट को ‘कर्मों की सजा’ समझ लिया जाता है। और मदद मांगना तो जैसे अपराध है। एक खुद्दार व्यक्ति जब हार मानता है, तो इसका मतलब है कि उसने हिम्मत नहीं हारी, बल्कि समाज से उम्मीद ही छोड़ दी।
सवाल यह भी है कि क्या इस परिवार को आत्महत्या से रोका जा सकता था? इसका जवाब है-हां। बिल्कुल-हां। इस हां के नेपथ्य में कहा जा सकता है कि अगर सरकारी योजनाएं ठीक से काम कर रही होतीं। अगर कर्ज माफी की प्रक्रिया मानवीय होती। अगर पड़ोसियों में संवेदना होती। अगर कोई रिश्ता इतना सजीव होता कि दरवाजा खटखटा देता। इसलिए आप सबसे आग्रह है कि संवेदनशील बनें। अगली बार जब कोई चुप हो, तो उसका हाल जरूर पूछें। यह जरूरी नहीं कि आप लाखों रुपये दें पर एक कंधा, एक बात, एक रास्ता बहुत बड़ा सहारा हो सकता है। यह भी कि संकट में अपनों को न छोड़ें, जब कोई तकलीफ में हो, तो उससे दूरी न बनाएं। यही वो समय होता है जब सबसे अधिक साथ की जरूरत होती है।
सरकार और प्रशासन से मांग करें कि आत्महत्या की घटनाओं की सिर्फ जांच न हो। उनसे सबक लेकर सामाजिक सुरक्षा ढांचा और मजबूत किया जाए। अपने बच्चों को सिखाएं कि हार इनसान को नहीं, इनसान हार को बदल सकता है। इस घटना का दूसरा पहलू बेहद आपत्तिजनक है। वह यह है कि मीडिया ने इसे खूब चलाया। खूब भुनाया। हर चैनल पर हेडलाइन थी– सात लोगों की सामूहिक आत्महत्या से हड़कंप। सुसाइड नोट में लिखी दर्दनाक बातें। सवाल है कि क्या मीडिया ने इसे मानवीय संकट की तरह देखा, या टीआरपी का मौका खोजा? इस परिघटना को सनसनीखेज बनाना बहुत आसान है, पर यह समझना जरूरी है कि किसी की मौत को खबर बनाना नहीं, किसी की जिंदगी को बचाना ज्यादा महत्वपूर्ण है। मीडिया को चाहिए कि वह ऐसी घटनाओं को नीतिगत बदलाव, सामाजिक सुधार और मानसिक स्वास्थ्य जागरुकता की दिशा में ले जाए ना कि केवल एक रोचक सामग्री की तरह पेश करे।
हर आत्महत्या के बाद एक अहम सवाल हमारे सामने होता है– अब क्या? अब रोने से कुछ नहीं बदलेगा। अब अफसोस से आत्मग्लानि मिटेगी नहीं।
अब समय है कि हम अपने-अपने जीवन के छोटे-छोटे दायरों में सजीव संवेदनशीलता को वापस लाएं। हर पड़ोसी, हर दोस्त, हर रिश्तेदार-अब एक वचन लें-मैं किसी अपने को यूं अकेला नहीं मरने दूंगा। आज, जब हम इस त्रासदी के बाद दुखी हैं तो एक सवाल हमारे सामने खड़ा है-क्या हम अगली प्रवीण मित्तल कहानी को होने से रोक पाएंगे? जवाब है शायद हां। यकीन न हो तो अपने जीवन में थोड़ा ठहराव लाएं।
रिश्तों को केवल औपचारिकता नहीं, संवेदना का माध्यम मानें। और यह मान लें कि कि चुप रहना भी एक किस्म का अपराध है। इसलिए इस बार मोमबत्तियां नहीं जलाइए। एक संकल्प लीजिए- किसी अपने को इस कदर टूटने नहीं दूंगा कि वो मौत को गले लगाने का विकल्प चुने। इसलिए अंत में प्रार्थना नहीं, प्रतिज्ञा करें कि अगली बार कोई प्रवीण मित्तल नहीं मरेगा। कोई बच्चा जहर नहीं निगलेगा। कोई भी मां अपनी आंखों से अपने सपनों को फांसी पर झूलते नहीं देखेगी। और अगर फिर भी यह सब न कर सकें तो ईश्वर के लिए कम से कम इतना जरूर करें-चुप न रहें।